CITD सेमिनार
1. प्रिया भैगोवालिया (एसोसिएट प्रोफेसर, अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली) पर प्रस्तुत "क्या बाल अल्पोषण विकासशील देशों में गरीबी उन्मूलन के बावजूद जारी रहती है ?" 23 अप्रैल, 2013 पर
2. दिव्या दत्त, रिसर्च स्कॉलर, सीआईटीडी , एसआईएस, जेएनयू "विशेष रुचि राजनीति और अंतर सरकारी राजकोषीय प्रोत्साहन के साथ एक संघ में पर्यावरण नीति " पर पर 20 फ़रवरी 2013 प्रस्तुत
3. अलोकेश बरुआ (प्रोफेसर, सीआईटीडी , 30 जनवरी, 2013 को: जेएनयू) 'मध्यवर्ती माल के साथ एक विशिष्ट कारक मॉडल व्यापार और वेतन असमानता ' पर प्रस्तुत किया।
सीआईटीडी , 2011 में आयोजित सेमिनार की सूची - 2012:
1. दिल बहादुर रहुत (अर्थशास्त्र के संकाय, दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय, नई दिल्ली) ' णोन्फर्म रोजगार और ग्रामीण कल्याण: हिमालय से साक्ष्य' पर प्रस्तुत 19 सितम्बर, 2012
2. अशोक गुहा (अतिथि प्रोफेसर, सीआईटीडी , जेएनयू) प्रस्तुत 'फॉर्च्यून पर दोबारा गौर उत्क्रमण: परिवहन का भूगोल और विश्व आर्थिक शक्ति के बदलने से बकाया राशि 'पर बाजार में व्यापार पर संकट का प्रभाव 05 सितंबर को, 2012
3. सन्चरी राय (पोस्टडॉक्टोरल रिसर्च फेलो, पिंजरे और अर्थशास्त्र विभाग, वारविक विश्वविद्यालय, ब्रिटेन) पर प्रस्तुत 'प्रेरित ज्ञान एजेंटों: सामाजिक निकटता बनाम वित्तीय प्रोत्साहन '22 अगस्त, 2012 को
अंतर्जात मानव पूंजी निर्माण, 30 मार्च 2012 फ्रंटियर और विकास' से दूरी 4. सुजाता बसु (रिसर्च स्कॉलर, सीआईटीडी , जेएनयू) पर प्रस्तुत '
5. सौरभ बिकास पॉल (एसोसिएट फेलो, एनसीएईआर) पर 16 मार्च 2012 को'
भारत में टैरिफ सुधार के वितरणात्मक प्रभाव 'प्रस्तुत 6. गुरबचन सिंह (विजिटिंग संकाय, योजना इकाई, भारतीय सांख्यिकी संस्थान, दिल्ली) उभरती अर्थव्यवस्थाओं से "` प्रणालीगत' गुणवत्ता के लिए उड़ान पर एक संगोष्ठी प्रस्तुत किया , और सक्षम अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट लाइन "3 फरवरी को 2012
7. तारा शंकर शॉ (अतिथि संकाय सदस्य, सीआईटीडी , जेएनयू) पर प्रस्तुत "खाद्य सब्सिडी परिवार के पोषण को प्रभावित करता है : भारतीय सा ्वजनिक वितरण प्रणाली से कुछ सबूत "20 जनवरी 2012
मोनिका दास, स्किद्मोरे कॉलेज, संयुक्त राज्य अमेरिका, द्वारा" गैर पैरामीट्रिक विधियों "पर 8. कार्यशाला 11-12 जनवरी के दौरान, 2012
9. सिद्धार्थ चट्टोपाध्याय 9 नवम्बर 2011 पर 'एक चलनिधि जाल से बचें स्विचिंग मौद्रिक नीति 'प्रस्तुत किया पर
10.ट्रिदिप शर्मा (प्रोफेसर, बिजनेस, मेक्सिको) पर 1 नवम्बर 2011 "
A warm welcome to the modified and updated website of the Centre for East Asian Studies. The East Asian region has been at the forefront of several path-breaking changes since 1970s beginning with the redefining the development architecture with its State-led development model besides emerging as a major region in the global politics and a key hub of the sophisticated technologies. The Centre is one of the thirteen Centres of the School of International Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi that provides a holistic understanding of the region.
Initially, established as a Centre for Chinese and Japanese Studies, it subsequently grew to include Korean Studies as well. At present there are eight faculty members in the Centre. Several distinguished faculty who have now retired include the late Prof. Gargi Dutt, Prof. P.A.N. Murthy, Prof. G.P. Deshpande, Dr. Nranarayan Das, Prof. R.R. Krishnan and Prof. K.V. Kesavan. Besides, Dr. Madhu Bhalla served at the Centre in Chinese Studies Programme during 1994-2006. In addition, Ms. Kamlesh Jain and Dr. M. M. Kunju served the Centre as the Documentation Officers in Chinese and Japanese Studies respectively.
The academic curriculum covers both modern and contemporary facets of East Asia as each scholar specializes in an area of his/her interest in the region. The integrated course involves two semesters of classes at the M. Phil programme and a dissertation for the M. Phil and a thesis for Ph. D programme respectively. The central objective is to impart an interdisciplinary knowledge and understanding of history, foreign policy, government and politics, society and culture and political economy of the respective areas. Students can explore new and emerging themes such as East Asian regionalism, the evolving East Asian Community, the rise of China, resurgence of Japan and the prospects for reunification of the Korean peninsula. Additionally, the Centre lays great emphasis on the building of language skills. The background of scholars includes mostly from the social science disciplines; History, Political Science, Economics, Sociology, International Relations and language.
Several students of the centre have been recipients of prestigious research fellowships awarded by Japan Foundation, Mombusho (Ministry of Education, Government of Japan), Saburo Okita Memorial Fellowship, Nippon Foundation, Korea Foundation, Nehru Memorial Fellowship, and Fellowship from the Chinese and Taiwanese Governments. Besides, students from Japan receive fellowship from the Indian Council of Cultural Relations.
Shivpuri : दीवाली नजदीक पर बाजार में क्यों पसरा बाजार में व्यापार पर संकट का प्रभाव है सन्नाटा? अब तक मंदे चले धंधे को धनतेरस से ही आस
सामान्य दिनों में ही शिवपुरी के बाज़ार में इससे ज़्यादा चहल पहल दिखती रही है.
अन्य राज्यों व शहरों से खबरें हैं कि कोरोना के दो साल के बाद दीवाली के त्योहार पर लोग ज़्यादा ही उत्साहित हैं और जमकर ख . अधिक पढ़ें
- News18 हिंदी
- Last Updated : October 21, 2022, 14:23 IST
रिपोर्ट – सुनील रजक
शिवपुरी. दीवाली का त्योहार 22 अक्टूबर से धनतेरस के साथ शुरू होने वाला है और शिवपुरी के सजे बाज़ारों में ग्राहक ही नहीं पहुंच रहे तो दुकानदारों के चेहरे लटक गए हैं. शिवपुरी के बाज़ारों में सन्नाटा क्यों पसरा हुआ है, इसके दो बड़े कारण आपको आगे बताते हैं, अभी तो चिंता की बात यह है कि स्थानीय ने दीवाली पर अच्छे कारोबार की उम्मीद में सामान स्टॉक कर लिया था, लेकिन सब भी सब दुकानों या गोदामों में ही रखा है. स्थिति यह है कि शिवपुरी के बाज़ारों में निकलो तो लगता है कि मंदी का दौर छाया हुआ है.
इस साल दीपावली से पहले बाज़ार कमज़ोर होने के दो बड़े कारण रहे हैं. पहला, जैसे ही मौसम की मार किसानों पर पड़ी, तो इसका सीधा असर व्यापार पर पड़ा. मौसम के कारण बदहाली के शिकार किसान दीवाली पर हाथ खोलने के मूड में क्या स्थिति में नहीं है, तो खरीदारी के लिए बाज़ार में नहीं पहुंच रहे. दूसरा कारण ऑनलाइन शॉपिंग से स्थानीय व्यापारियों की प्रतिस्पर्धा. इन दोनों ही समस्याओं से जूझ रहे व्यापारी अब धनतेरस से कुछ आस लगा रहे हैं.
बिन मौसम की बरसात ने किसानों की फसलों को बर्बाद कर दिया. किसानों के पास पैसा नहीं होने से बाज़ार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है. हर साल दीपावली के दौरान जहां गांवों से किसान लाखों रुपये की खरीदारी के लिए शहरो में आते थे, वो गायब हैं. परेशान दुकानदार अब धनतेरस की खरीदारी पर आस लगाए बैठे हैं कि शायद पारंपरिक मान्यताओं के बूते ही धनतेरस पर कुछ चमत्कार हो जाए और ग्राहकों की भीड़ उमड़े. एक कारण यह भी है कि खास तौर से ज्वेलरी की खरीदी अब तक ऑनलाइन माध्यमों से प्रचलित नहीं है.
ऑनलाइन शॉपिंग से कैसे भिड़ेगा लोकल धंधा?
ऑनलाइन शॉपिंग लोकल व्यापार को खासा प्रभावित कर रही है और शिवपुरी भी इससे अछूता नहीं है. ऑनलाइन ट्रेंड शिवपुरी में भी बढ़ रहा है. यही कारण है कि दुकान लगाकर बैठा स्थानीय व्यापारी चिंतित है. व्यापारियों ने बताया ऑनलाइन शॉपिंग में डिस्काउंट का लालच होता है. बाज़ारों में मंदी का दौर छाए रहने के बाद व्यापारी कह रहे हैं कि अब धनतेरस का ही इंतज़ार है, शायद इस साल का घाटा कुछ घट सके.
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बाजार में व्यापार पर संकट का प्रभाव
परिभाषित "अनुचित प्रभाव".
प्र.16. (1) एक अनुबंध पक्षों के बीच संविदा संबंधों पार्टियों में से एक दूसरे की इच्छा पर हावी होने की स्थिति में है और अधिक से अधिक एक अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिए है कि स्थिति का उपयोग करता है कि ऐसी हैं जहां "अनुचित प्रभाव" से प्रेरित होना कहा जाता है अन्य.
(2) विशेष और पूर्वगामी सिद्धांत की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, एक व्यक्ति का एक और इच्छाशक्ति पर हावी करने की स्थिति में नहीं समझा है
(क) | वह दूसरे के ऊपर एक असली या स्पष्ट अधिकार रखती है जहां, या वह दूसरे के लिए एक प्रत्ययी संबंध में खड़ा है जहां; या |
(ख) | वह जिसका मानसिक क्षमता को अस्थायी या स्थायी रूप से है उम्र, बीमारी, या मानसिक या शारीरिक संकट की वजह से प्रभावित एक व्यक्ति के साथ एक अनुबंध करता है. |
(3) एक और की इच्छा पर हावी होने की स्थिति में है जो एक व्यक्ति, उसके साथ एक अनुबंध में प्रवेश करती है, और लेन - देन, अनुचित हो सकता है, इसे चेहरे पर या adduced सबूत पर, साबित करने का बोझ कहां दिखाई देता है कि इस तरह के अनुबंध अन्य की इच्छा पर हावी होने की स्थिति में व्यक्ति पर सकेगी अनुचित प्रभाव से प्रेरित नहीं था.
इस उप - धारा में कुछ भी नहीं है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 111, 1872 (1872 का 1) के प्रावधानों को प्रभावित नहीं करेगा.
Russia Invasion: रूस का यूक्रेन पर हमला वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बेहद खतरनाक, बढ़ सकते हैं कई तरह के संकट
ऊर्जा की बढ़ती लागत और आपूर्ति श्रृंखलाओं में निरंतर व्यवधान कमजोर आर्थिक स्थिति की बड़ी वजह बना हुआ है. ये दोनों यूक्रेन संकट से और ज्यादा बदतर हो जाएंगे. इसके अलावा भी कई संकट हैं.
By: ABP Live | Updated at : 26 Feb 2022 02:48 PM (IST)
रूस ने ऐसे समय में यूक्रेन पर हमला किया है, जब विश्व अर्थव्यवस्था एक नाजुक दौर से गुजर रही और कोविड के कहर से उबरने की शुरुआत कर रही है. रूस के इस हमले के अब दूरगामी आर्थिक परिणाम हो सकते हैं, क्योंकि इससे वित्तीय बाजार गिरेंगे और तेल के भाव चढ़ेंगे. इस घटनाक्रम की तुलना मध्य पूर्व में 1973 के योम किप्पुर युद्ध से की जा सकती है, जिसके कारण तेल संकट पैदा हुआ था. इसने विश्व अर्थव्यवस्था को उसकी नींव तक हिला दिया और उस आर्थिक उछाल के अंत का संकेत दिया, जिसने बेरोजगारी को कम करने और जीवन स्तर को बढ़ाने में उल्लेखनीय योगदान दिया था.
आज विश्व अर्थव्यवस्था उस समय की तुलना में बहुत बड़ी है, लेकिन हाल के दशकों में यह बहुत धीमी गति से बढ़ रही है. महामारी ने पिछले दो वर्षों में बड़ा झटका दिया, सरकारों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं को उबारने के लिए बड़ी रकम खर्च करने के लिए मजबूर होना पड़ा. अब सुधार के कुछ संकेतों के बावजूद उच्च मुद्रास्फीति और कम विकास के जोखिम बने हुए हैं, बड़े ऋणों ने कई सरकारों की हस्तक्षेप करने की क्षमता को सीमित कर दिया है.
ऊर्जा की बढ़ती लागत और आपूर्ति श्रृंखलाओं में निरंतर व्यवधान कमजोर आर्थिक स्थिति की बड़ी वजह बना हुआ है - ये दोनों यूक्रेन संकट से बदतर हो जाएंगे. रूस यूरोपीय संघ का गैस और तेल का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है. उच्च ऊर्जा लागत का मतलब अधिक महंगा परिवहन है, जिससे सभी प्रकार के सामानों की आवाजाही प्रभावित होती है. शायद विश्व अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ा जोखिम यह है कि अगर यह संकट लंबे समय तक चला तो दुनिया को दोहरे गतिरोध में डाल सकता है, उच्च मुद्रास्फीति और कम आर्थिक विकास. जीवन यापन की लागत बिगड़ सकती है
उच्च और बढ़ती मुद्रास्फीति जीवन यापन की लागत के संकट को बढ़ा देगी, जो पहले से ही कई उपभोक्ताओं को प्रभावित कर रहा है. यह केंद्रीय बैंकों के लिए एक दुविधा भी प्रस्तुत करता है जो पिछले दो वर्षों से महामारी के कारण अर्थव्यवस्था में पैसा डाल रहे हैं. अधिकांश अब धीरे-धीरे इस मदद को वापस लेने की योजना बना रहे हैं, साथ ही मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए धीरे-धीरे ब्याज दरों में वृद्धि कर रहे हैं. अगर मुद्रास्फीति में तेजी जारी रही और केंद्रीय बैंकों ने नाटकीय रूप से ब्याज दरों में वृद्धि कर दी तो अर्थव्यवस्था और कमजोर होगी.
1970 के संकट के दौरान, अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने 1978 तक ब्याज दरों को 10% तक बढ़ा दिया था, जिससे एक गहरी मंदी आई थी. ब्रिटेन में इसके अगले वर्ष बैंक ऑफ इंग्लैंड की ब्याज दरें 17% तक पहुंच गईं, जिससे तीव्र आर्थिक गिरावट आई. यह उम्मीद कि 2022 के मध्य तक मुद्रास्फीति का दबाव कम हो जाएगा, अब पूरी होती नहीं दिख रही. रूस और यूक्रेन गेहूं के दुनिया के सबसे बड़े निर्यातकों में से हैं और कई देश (विशेष रूप से यूरोप में) रूसी तेल और गैस पर निर्भर हैं, इसलिए ऊर्जा और खाद्य कीमतों में और वृद्धि जारी रह सकती है.
केवल मुद्रास्फीति की दर का बढ़ना ही मायने नहीं रखता, बल्कि लोगों की यह अपेक्षा भी है कि यह और बढ़ेगी. इससे एक "वेतन-मूल्य श्रृंखला" बन सकती है, जहां लोग जीवन की उच्च लागत की भरपाई के लिए अधिक वेतन की मांग करते हैं, जिससे कंपनियों को अधिक वेतन का भुगतान करने के लिए अपने उत्पादों की कीमतों में और वृद्धि करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. केंद्रीय बैंकों को तब ब्याज दरें और भी अधिक बढ़ाने के लिए मजबूर किया जाता है. इस तरह यह सिलसिला चलता रहता है.
मुद्रास्फीति का मतलब यह भी है कि सरकारी खर्च वास्तविक रूप से गिर सकता है, सार्वजनिक सेवाओं के स्तर को कम करना पड़ सकता है और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों के वेतन को कम किया जा सकता है. ऐसे में अगर फर्मों को लगता है कि वे उच्च मजदूरी की भरपाई के लिए पर्याप्त कीमतें नहीं बढ़ा सकती हैं, तो वे अपने कर्मचारियों की संख्या में कटौती करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं, जिससे बेरोजगारी बढ़ सकती है.
केंद्रीय बैंक कमजोर अर्थव्यवस्था को स्थिर करने में मदद करने के लिए वित्तीय बाजारों में भारी मात्रा में पैसा लगा रहे हैं, इसका एक प्रभाव यह रहा है कि पिछले दशक में शेयर बाजार उल्लेखनीय रूप से उत्साहित रहे, औसतन हर साल लगभग 10% की वृद्धि हुई. इस साल स्टॉक में गिरावट शुरू हो गई थी जब केंद्रीय बैंकों ने घोषणा की थी कि वे इस समर्थन को कम कर देंगे, और यूक्रेन पर हमला होने के बाद से बाजार और गिर गए हैं. यदि मुद्रास्फीतिजनित मंदी की वापसी होती है, तो केंद्रीय बैंकों को अपना समर्थन और भी तेजी से कम करना होगा, ऐसे में एक धीमी अर्थव्यवस्था कॉर्पोरेट मुनाफे को प्रभावित करेगी और स्टॉक की कीमतों को और कम करेगी (हालांकि ऊर्जा शेयरों में वृद्धि होगी). यह बदले में निवेश और व्यापार विश्वास को कम कर सकता है, जिससे कम नई नौकरियां पैदा होंगी.
स्टॉक या अन्य संपत्ति रखने वाले कई लोगों के लिए, बढ़ती कीमतें अक्सर "धन प्रभाव" की ओर ले जाती हैं, जहां लोग पैसे खर्च करने (और उधार लेने) के बारे में अधिक आश्वस्त होते हैं, खासकर बड़ी वस्तुओं पर. इसलिए कमजोर बाजार आर्थिक विकास के साथ-साथ पेंशन योजनाओं की व्यवहार्यता को प्रभावित करेंगे, जिन पर बहुत से लोग निर्भर हैं. यूक्रेन पर रूस के हमले के राजनीतिक और मानवीय परिणामों के बारे में बहुत अनिश्चितता है, दुनिया को भी गंभीर आर्थिक प्रभावों के लिए तैयार रहना चाहिए.
यूरोप के किसी भी आर्थिक तूफान के रास्ते में सबसे पहले आने की संभावना है, आंशिक रूप से रूसी ऊर्जा आपूर्ति पर इसकी अधिक निर्भरता के साथ ही इसके दरवाजे पर युद्ध के लिए इसकी भौगोलिक निकटता के कारण भी. अमेरिका में कोई भी आर्थिक कठिनाई बाइडेन प्रशासन को और कमजोर कर सकती है और अलगाववादी, अमेरिका-प्रथम विचारों को मजबूत कर सकती है. इस बीच रूस और चीन के बीच एक वैश्विक गठबंधन दोनों अर्थव्यवस्थाओं को और मजबूत कर सकता है, प्रतिबंधों के किसी भी प्रभाव को खत्म कर सकता है, और अपनी सैन्य और आर्थिक ताकत को मजबूत कर सकता है.
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Published at : 26 Feb 2022 02:48 PM (IST) Tags: Vladimir Putin Russia Ukraine War Russia Ukraine Conflict Russia Ukraine Conflict Global Economy हिंदी समाचार, ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें abp News पर। सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट एबीपी न्यूज़ पर पढ़ें बॉलीवुड, खेल जगत, कोरोना Vaccine से जुड़ी ख़बरें। For more related stories, follow: News in Hindi
वैश्विक ऊर्जा बाजारों में उतार-चढ़ाव : किस मोड़ पर भारतीय बाजार
कच्चे तेल की कीमतों बाजार में व्यापार पर संकट का प्रभाव में प्रति बैरल 10 अमेरिकी डालर की वृद्धि होने पर भारत के कुल तेल बिल में 15 बिलियन अमेरिकी डालर की बढ़ोतरी हो जाती है।
सांकेतिक फोटो।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में जीवाश्म ईंधन की आपूर्ति को लेकर आंशिक उतार-चढ़ाव का भारतीय ऊर्जा बाजार पर खासा असर पड़ता है। रूस जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल और गैस) का सबसे बड़ा निर्यातक है। यह विश्व का सबसे बड़ा तेल (क्रूड और उत्पादों) निर्यातक है और दुनियाभर के बाजारों में रोजाना आठ मिलियन बैरल (बी/डी) तेल की आपूर्ति करता है।
रूस सिर्फ पाइपलाइन से 210 बीसीएम (बिलियन क्यूबिक मीटर) प्राकृतिक गैस का निर्यात करता है। रूस दुनिया के 10 चोटी के कोयला उत्पादकों में भी शामिल है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में रूसी तेल, गैस और कोयले की थोड़ी सी भी कमी या आपूर्ति बाधित होने का असर भारतीय ऊर्जा क्षेत्र पर पड़ता है और यह असर कीमत के साथ-साथ मात्रा के रूप में भी होता है। कच्चा तेल तेल की कीमत में उतार-चढ़ाव का संकट भारत की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
भारत के लिए चुनौती
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भारत में खपत पर कोई नियंत्रण नहीं है। ऐसे में आपूर्ति में थोड़ी भी कमी से भारतीय बाजार लड़खड़ाने लगते हैं। रूस द्वारा एक मिलियन बैरल प्रतिदिन तक उत्पादन में कमी के असर को थोड़े समय तक तो संभाला जा सकता है, पर आपूर्ति में ज्यादा कमी के प्रभाव को संभालने के लिए आपूर्ति मजबूत करना होता है। रूस से आपूर्ति में अनुमानित कमी लगभग चार मिलियन बैरल प्रतिदिन है।
ओपेक (तेल उत्पादक और निर्यातक देश) द्वारा उत्पादन में बढ़ोतरी कर इस नुकसान के 40 फीसद से कम की भरपाई की जा सकती है। भारत में वर्ष 2020-21 में पेट्रोलियम उत्पादों को लेकर आत्मनिर्भरता अनुपात 15.6 फीसद था, जिसका मतलब है कि पेट्रोलियम उत्पाद की अपनी लगभग 85 प्रतिशत जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत आयात पर निर्भर है। व्यापार संतुलन पर ऊर्जा के व्यापक प्रभाव को देखते हुए, भारत की ऊर्जा नीति व्यापार संतुलन, विशेष रूप से इसके ऊर्जा आयात बिल पर पड़ने वाले प्रभावों के प्रबंधन से जुड़ी है।
कच्चे तेल की कीमतों में प्रति बैरल 10 अमेरिकी डालर की वृद्धि होने पर भारत के कुल तेल बिल में 15 बिलियन अमेरिकी डालर की बढ़ोतरी हो जाती है। इससे भारत का चालू खाता घाटा जीडीपी का लगभग 0.4-0.6 फीसद बढ़ जाता है और 1.9 बिलियन अमेरिकी डालर से अधिक के अतिरिक्त सब्सिडी खर्च के साथ राजकोषीय हेडरूम कम हो जाएगा।
मूल्य और मात्रा का संकट
प्राकृतिक गैस के मामले में भारत को मूल्य और मात्रा दोनों ही तरह के संकटों का सामना करना पड़ सकता है, विशेष रूप से इसके स्पाट गैस आयात के मामले में। प्राकृतिक गैस के लिए भारत का आत्मनिर्भरता अनुपात वर्ष 2021-22 में 50.9 फीसद था। लगभग 50 फीसद आयातित गैस एलएनजी (तरलीकृत प्राकृतिक गैस) में से करीब 75 से 80 फीसद लंबी अवधि के अनुबंधों के माध्यम से प्राप्त की जाती है और बाकी गैस की स्पाट खरीद यानी हाजिर ख़रीद की जाती है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में गैस और तेल की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी बने रहने से लंबी अवधि के अनुबंधों के लिए मोल-भाव में कीमतें बढ़ सकती हैं। कच्चे तेल की कीमतें जब कम थीं, तब वर्ष 2020 में ब्रेंट क्रूड फ्यूचर्स के 10 फीसद कमी (जो तेल और गैस की कीमत के बीच संबंध की व्याख्या करता है और जापानी क्रूड काकटेल (जेसीसी) की कीमतों से बढ़ता है) के साथ तेल से संबंधित अनुबंध किए गए थे।
निर्यातकों की तरफ से अपने संशोधित अनुबंधों में अधिक कमी की मांग करने की संभावना है। जर्मनी ने हाल ही में एलएनजी आपूर्ति के लिए कतर के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। मध्य पूर्व की एलएनजी के लिए यूरोप से बराबरी भारत द्वारा बातचीत के दौरान अपने मुताबिक मूल्य तय करने की संभावना को कम कर सकती है।
उतार-चढ़ाव के बीच सौदा
स्पाट बाजार के जरिए एलएनजी के आयात का मतलब है, कीमतों में बेतहाशा उतार-चढ़ाव के बीच सौदा करना। कोरोना महामारी के दौरान जब एशियाई स्पाट एलएनजी आयात के लिए बेंचमार्क जापान कोरिया मार्कर (जेकेएम) की एलएनजी की कीमत फरवरी, 2021 में 18 अमेरिकी डालर प्रति एमएमबीटीयू तक पहुंच गई थी तो भारत से स्पाट गैस की मांग लगभग खत्म हो गई थी।
भारतीय कंपनियों ने स्पाट बाजार की मौजूदा उच्च दरों पर आयात करने से बचने के लिए एलएनजी कार्गो को स्थगित कर दिया और उन्हें आगे भविष्य के लिए बढ़ा दिया। अप्रैल, 2020 में कोरोना महामारी से प्रभावित आर्थिक मंदी के कारण जापान कोरिया मार्कर (जेकेएम) लगभग दो अमेरिकी डालर प्रति एमएमबीटीयू तक गिर गया, लेकिन यही जेकेएम मार्च, 2022 में 35 अमेरिकी डालर प्रति एमएमबीटीयू से अधिक हो गया। यूक्रेन संकट और प्राकृतिक गैस आपूर्ति से संबंधित जोखिमों के चलते इसमें 1650 फीसद से अधिक की वृद्धि हुई।गैस आपूर्ति की स्थिति
भारत के औद्योगिक ग्राहक कोयले के स्थान पर पांच से छह अमेरिकी डालर प्रति एमएमबीटीयू की दर पर गैस का इस्तेमाल करना पसंद करते हैं, हालांकि उर्वरक और शहरी गैस वितरण जैसे कुछ क्षेत्रों को लगभग 10 अमेरिका डालर प्रति एमएमबीटीयू की कीमतें भी सहज लगती हैं। इस कीमत के बाहर भारत के बाजार में खरीदारी की संभावनाएं सीमित हैं।
एक ऐसी स्थिति में, जब अप्रैल, 2022 और मार्च, 2023 के मध्य कई मार्गों पर द्वारा गैस की आपूर्ति बंद हो जाती है, तो गैस की वैश्विक मूल्य वृद्धि की प्रबल संभावना है। ऐसा होने पर गैस का इस्तेमाल करने वाले भारतीय उद्योग, गैस की जगह पर वैकल्पिक जीवाश्म र्इंधन, जैसे मुख्य रूप से कोयला और पेट्रोलियम कोक की तरफ दोबारा लौटेंगे। अगर गैस की वैश्विक कीमतों में बढ़ोतरी लंबे समय तक बनी रहती है, तो इससे भारत की गैस का उपयोग 6 से 15 फीसद तक बढ़ाने का लक्ष्य प्रभावित होगा।
क्या कहते हैं जानकार
भारत सेमी कंडक्टर, सोलर पैनल और अन्य महत्त्वपूर्ण जरूरतों के लिए घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देना चाहता है जिससे उसे इस तरह के रणनीतिक संकट का कभी सामना न करना पड़े। सरकार इसके लिए भारतीय-विदेशी उद्योगपतियों को निवेश के लिए आकर्षित कर रही है।
अर्थव्यवस्था मजबूत होने और जीडीपी की विकास दर 9.5 फीसद होने पर भारत सुपर पावर बन सकता है। वर्ष 2040 तक भारत आबादी के मामले में चीन को पीछे छोड़ सकता है। भविष्य की इस मांग को सौर ऊर्जा से पूरा करने की दिशा में ठोस प्रयास होने चाहिए।
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